कार्तिक पूर्णिमा
वंदना
श्रीहंसञ्च सनत्कुमार प्रभृतीम् वीणाधरं नारदं,
निम्बादित्यगुरुञ्च द्वादशगुरुन् श्री श्रीनिवासादिकान्।
वन्दे सुन्दरभट्टदेशिकमुखान् वस्विन्दुसंख्यायुतान्,
श्रीव्यासाध्दरिमध्यगाच्च परत: सर्वान्गुरुन्सादरम।। 1 ।।
हे निम्बार्क! दयानिधे गुणनिधे! हे भक्त चिन्तामणे!
हे आचार्यशिरोमणे! मुनिगणैरामृग्यपादाम्बुज!
हे सृष्टिस्थितिपालक! प्रभवन! हे नाथ! मायाधिप,
हे गोवर्धनकन्दरालय! विभो! मां पाहि सर्वेश्वर।। 2 ।।
शंखावतार पुरुशोत्मस्य यस्य ध्वनि शास्त् मचिन्त्य शक्ति।
यत्सस्पर्श मात्राच ध्रुव माप्त काम तम्श्री निवासभ्शनम् प्रपद्ये।। 3 ।।
जय जय श्री हित सहचरी भरी प्रेम रस रंग,
प्यारी प्रियतम के सदा रहति जु अनुदित संग।
जय जय श्री हरि व्यास जु रसीकन हित अवतार,
महावानी करि सबनिको उपदेश्यो सुख सार।।
आनन्द मानन्द करम् प्रसन्नम ज्ञानम् स्वरूपम् निज भाव युक्तम्।
योगीन्द्र मीड्यम भव रोग वैद्यम, श्री मद् गुरुम् नित्य महम् स्मरामि।।
भक्ति भक्त भगवन्त गुरु चतुर नाम वपु एक,
इनके पद वन्दन किये नाशात विघ्न अनेक।।
वान्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा सिन्धुभ्य एव च।
पतितानाम् पावनेभ्यो वैष्णवैभ्यो नमो नम:।।
निम्बभानु उद्योत जहं, भाव कमल परकास।
रस-पंचक मकरंद के, सेवक पद रज दास।। 1 ।।
भयो प्रकट जब निम्बरवि, गयो तिमिर अज्ञान।
नयो युगल लीला ललित, रस प्रगट्यो भुवि आन।। 2 ।।
आचारज वर अवतरे, निम्बग्राम सुख साज।
मन भायो सब जनन को, भयो बधायो आज।। 3 ।।
पुहुप बृष्टि सुरवर करें, प्रमुदित सब नर नार।
आज बधाई निम्बपुर, अरुण ऋषि दरबार।। 4 ।।
पद-1 बड़ा मंगल
जै जै श्री निम्बार्क आचारज अवतरे।
युगल सु आज्ञा पाय सुदर्शन वपु धरे।।
कुमति मति पाखंड देखि हरि यों कही।
थापो मत अविरोध तुम्हें आज्ञा दई।।
दई आज्ञा पाय हरिकर-चक्र वपु धारण कियो।
सनकादि नारद हार्द हिय धरि धरनितल पावन कियो।।
तैलंग द्विजवर रूप धरि अविरोध मत पुनि अनुसरे।
जै जै श्रीनिम्बार्क आचारज अवतरे।। 1 ।।
जै जै श्री निम्बार्क आचारज गाइये।
भवनिधि पार अपार पार पर पाइये।।
औदुम्बर श्रीनिवास गौरमुख जे भये।
जिन पदरजकूं पाय धाय प्रभु पद गहे।।
गहे पद प्रभु के जु नित प्रति दिव्य बपु ह्वै सेवहीं।
युगलपद मकरंद रज मधु मधुप ज्यों अब लेवहीं।।
आदि मघ्य अवसान जिनको वेद भेद न पाइये।
जै जै निम्बार्क आचारज गाइये।। 2 ।।
जै जै श्रीनिम्बार्क आचार्य शिर भूषणा।
भक्ति ज्ञान की खान आन मग दूषणा।।
जे नर आवें शरण छाप कर जे धरै।
जन्म जन्म के पाप ताप त्रय परहरे।।
परहरै त्रय ताप तिनके कर्म धर्म बिनाशहीं।
सकल मुनिगण निगम कर धर व्यास वेदन में कही।।
तापादि पंचक धारि उर में जगत ते पुनि रूपणा।
जै जै श्रीनिम्बार्क आचार्य शिर भूषणा।। 3 ।।
जै जै श्रीनिम्बार्क गोवर्धन राजहीं।
नित लीला रस पान आन सुख त्याजहीं।।
श्रीवृंदावन मध्य रहस्य रस परचरें।
निम्बग्राम निज धाम काम पूरण करें।।
करें पूरण काम सबके शरण जे जन आवहीं।
श्रीनिम्बभानु कृपालु को सुखराम गुणगण गावहीं।।
धरे युग-युग रूप नामा वैष्णवन सुख साजहीं।
जै जै श्रीनिम्बार्क गोवर्धन राजहीं।। 4 ।।
पद-2
छोटा मंगल
मंगल मूरति नियमानंद।
मंगल युगल किसोर हंस वपु श्री सनकादिक आनंदकंद।।
मंगल श्री नारद मुनि मुनिवर, मंगल निम्ब दिवाकर चंद।
मंगल श्री ललितादि सखीगण, हंस-वंश सन्तन के वृंद।।
मंगल श्री वृंदावन जमुना, तट वंशीबट निकट अनंद।
मंगल नाम जपत जै श्री भट, कटत अनेक जनम के फंद।।
नमो नमो नारद मुनिराज।
विषियन प्रेमभक्ति उपदेशी, छल बल किए सबन के काज।।
जिनसों चित दे हित कीन्हों है, सो सब सुधरे साधु समाज।
(श्री) व्यास कृष्ण लीला रंग रांची, मिट गई लोक वेद की लाज।।
आज महामंगल भयो माई।
प्रगटे श्री निम्बारक स्वामी, आनंद कह्यो न जाई।।
ज्ञान वैराग्य भक्ति सबहिन को, दियो कृपा कर आई।
(श्री) प्रियासखी जन भये मन चीते, अभय निसान बजाई।।
नमो नमो जै श्री भट देव।
रसिकन अनन्य जुगल पद सेवी, जानत श्री वृंदावन भेव।।
(श्री) राधावर बिन आन न जानत, नाम रटत निशदिन यह टेव।
प्रेमरंग नागर सुख सागर श्री गुरुभक्ति शिरोमणि सेव।।
नमो नमो जै श्री हरिव्यास
नमो नमो श्री राधा माधव, राधा सर्वेश्वर सुखरास।।
नमो नमो जय श्री वृंदावन, यमुना पुलिन निकुंज निवास।
(श्री) रसिक गोविंद अभिराम श्यामघन नमो नमो रस रासविलास।।
पद-3 (युगल शतक-सुरत सुख-75)
दोहा
बहु भतियां फूल्यौ विपिन, रतियां सरद सुहात।
बतियां भांवति करत उर, छतियां अंक लषात।।
पद
दोउ मिलि करत भांमती बतियां।
मदन गोपाल कुंवरि राधे के, नखमनि अंक लिषत उर छतियां।।
तैसिय छिटकि रही उजियारी, पूरन चंद सरद की रतियां।
केलि रूपिनी जमुना श्रीभट, वृन्दावन फूल्यौ बहुत भतियां।।
पद-4 (हंस वंश यश सागर-120)
बजत बधायो री हेली, द्विज ऋषिराज के।
लगत सुहायो री हेली, यह दिन आज के।।
आज को दिन शुभ सुहायो, मास कार्तिक भावनो।
शरद ऋतु पून्यो तिथि बुध, मेष लग्न सुहावनो।।
अरुण ऋषि घर पुत्र प्रगटे, निरखि अति सुख पाइये।
मनहु मन्मथ परम सुंदर, अमित रवि शशि भाइये।।
सबैं मिलि आवो री हेली, हृदय सुख उपजाइये।
अंग-अंग भावो री हेली, मंगल बधाई गाइये।।
गाइये नव परम मंगल, मोतिन चौक पुराइये।
हेम-कुम्भ रु खम्भ कदली, बन्दन माल बंधाइये।।
पगो सब या सुखहि सजनी, भक्तिरस मन लाइये।
जन्म दिन यह निम्ब रवि को, महा भागन पाइये।।
जो रस सांचो री हेली, इन पद जानिये।
हरि कर वासो री हेली, तन धरि आनिये।।
आनिये धरि हिये सजनी, रंगदेवी वपु धरे।
हंस वंश प्रकाश कर, सनकादि मारग अनुसरे।।
अर्थ-पंचक क्रिया-पंचक, रस जु पंचक पुनि करे।
शांत सुख वात्सल्य दास, श्रृंगार पस शुभ उर धरे।।
हिलि मिलि नाचो री हेली, गुन गन गाइये।
आनंद साचो री हेली, अनगन पाइये।।
पाइये सुख हिये सजनी, दिवस रजनी विलसिये।
काय मन धन वचन सब विधि, लाय अब नहिं अलसिये।।
‘शरण श्रीगोविन्द’ रसबस, सरस रस मिलि पीजिये।
(श्री) निम्बभानु दयाल को यश, गाय नित प्रति जीजिये।।
पद-5 (हंस वंश यश सागर-94)
आज सखी ऋषि राज द्वार पै, अद्भुत बजत बधाई री।
घुरत निसान दुन्दुभी बाजै, पटह मृदंग सुहाई री।।
भेरी टेरत सुनावत मंगल, मनहु बुलावन आई री।
घर-घर के सब सजि-सजि निकसीं, बिप्रबधू छबि छाई री।।
मंगल गावत आवत सजनी, दिशदिश अधिक सुहाई री।
नाचत कूदत हरषत बरषत, दधि की कीच मचाई री।।
केसर चौक पुरावत आंगन, सामवेद ध्वनि छाई री।
सींक सवांर सांथिया रोपे, बन्दनमाल बंधाई री।।
अन्न बसन मनभावन पावत, सब जन आस पुराई री।
धेनु अमित द्विजवर घर ओपत, नाना वरण मंगाई री।।
मागध सूत वन्दिजन द्वारै, उत्तम कीरति गाई री।
भूषण बसन अमोलक दै दै, सबकी आस पुराई री।।
आज अरुण ऋषि नन्दराय भये, महरि जयन्ती माई री।
श्रीभट सुभट बधाई गावत, अद्भुत गति गरसाई री।।
पद-6 (हंस वंश यश सागर-99)
निम्बारक निम्बारक निम्बारक कहो रे।
त्रिविध ताप जरयौ जात काहे कूं सह्यो रे।।
हंसवंश तिमिर ध्वंस शरण आय रहो रे।
सनकादिक नारदमुनि निम्बभानु कहो रे।।
श्रीनिवास सदानन्द आदि वाक्य गहो रे।
विषयन विषरूप जान, काहे कू चहो रे।।
काम क्रोध लोभ मोह सिन्धु क्यों बहो रे।
चक्ररूप भक्तभूप पाद-पद्म गहो रे।।
आदि अनादि सम्प्रदाय भूल क्यों रहो रे।
ज्ञान पाय सुख समाज निम्बग्राम रहो रे।।
पद-7
जै जै श्री राधारमण विराजैं।
निज लावण्य रूप निधि संग लिये,
कोटि काम छवि लाजैं।
कुंज-कुंज मिल विलसत हुलसत,
सेवत सहचरि संग समाजैं।
श्रीवृंदावन श्री हितु श्री हरिप्रिया,
चोज मनोजन काजैं।।
पद-8
सेवौं श्री राधारमण उदार।
जिन्ह श्री गोपाल दास जू सेव्यौ,
गोपाल रूप उर धार।
श्री हंसदास जू सेवत मानसी,
युगल रूप रस सार।
तिनकी कृपा श्री गोविंद बाल (जु दिये),
सिंहासन बैठार।।