मंगलवार, 4 नवंबर 2008

वैष्णव समाज गायन

समाज गायन : ब्रज की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर

कार्तिक मास में निम्बार्क कोट में हर शाम को होने वाला समाज गायन निबार्क आचार्य वृंद जयंती महोत्सव का विशेष आकर्षण है। बताते हैं कि निम्बार्क संप्रदाय में विक्रम संवत की पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी के मध्य से ही समाज गायन की परंपरा चली आ रही है। वहीं निबार्क कोट में समाज गायन की परंपरा का इतिहास लगभग १६८ साल से कुछ अधिक अधिक पुराना है। यहां की समाज गायन परंपरा का श्रीगणेश स्वामी गोपाल दास जी महाराज ने संवत् 1901 (सन् 1843) में तब किया था, जब उन्होंने श्री निम्बार्क आचार्य वृंद जयंती महोत्सव की स्थापना की। तब से यहां महोत्सव में समाज गायन की परंपरा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है।
समाज गायन प्राचीन भारतीय शास्त्रीय संगीत के गायन की एक वैष्णवी शैली है, जिसमें संत समूह में मिलकर आचार्यों की वाणी पदों का गायन करते हैं। रसिक संतों व आचार्यों द्वारा राधाकृष्ण के युगल स्वरूप की दिव्य लीलाओं की जो काव्यमय अभिव्यक्ति है, वही वाणी है और इन वाणियों का सामूहिक गायन ही समाज गान है।
समाज गायन के समय सभी साधु संत दो दलों में विभक्त होकर दो पंक्तियों में आमने-सामने बैठते हैं। दोनों पंक्तियां अपने सेव्य विग्रह के सामने दांयी और बांयी ओर होती है। दाहिनी ओर वाले दल को मुखिया दल और बांयी ओर वाले दल को झेला दल कहते हैं। मुखिया दल के सबसे निपुण कलाकार को मुखिया पुकारा जाता है। मुखिया पहले तानपूरा लेकर बैठते थे पर आजकल हारमोनियम के इस्तेमाल करने का चलन हो गया है। उनके अगल-बगल में कई अन्य श्रेष्ठ साधु-संत कुछ अन्य वाद्य जैसे सारंगी, सितार, तानपूरा, बांसुरी आदि लेकर बैठते हैं। सेव्य विग्रह के बांयी ओर झेला दल में एक या अधिक संत झांझ या मजीरा आदि बजाते हैं। दोनों पंतियों के मध्य में रिक्त स्थान पर अंतिम छोर पर मृदंग वादक बैठता है, जो सेव्य विग्रह के बिल्कुल समुख होता है। दोनों दलों के मध्य ऊंची चौकी पर रखी वाणी को समाज श्रंखला के नाम से जाना जाता है। अन्य समाजियों के समाने भी ऊंची चौकी पर अथवा रेहल पर वाणी की प्रतिलिपियां रखी होती हैं। जो पहले हस्तलिखित हुआ करती थी पर आजकल मुद्रित भी होती हैं।
परंपरागत रूप से सर्वप्रथम मुखिया व अन्य एक दो वरिष्ठ संत समाज का शुभारंभ करते हैं। सर्वप्रथम मंगलाचरण के रूप में मंगल के दो पद गाए जाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-छोटा मंगल व बडा मंगल। बडा मंगल पहले गाया जाता है, जो सूहा विलावल में गाया जाता है। इस बडे मंगल में तद्तद् आचार्य का उत्कर्ष गाया जाता है। जबकि बाद में गाया जाने वाला छोटा मंगल प्रणामात्मक व मंगल सूचक होता है।
समाज के आरंभ में होने पर कुछ समय पश्चात पुजारी बाबा द्वारा वाणी जी व अन्य समाजियों का माला, चंदन इत्र इत्यादि से आदर सत्कार किया जाता है। वह समाजियों को गायन के मध्य में ही मिश्री, काली मिर्च, पान-बीरी, इलाइची आदि का भोग देते हैं। मंगल के दोनों पदों के गायन के उपरांत श्रीभट्ट जी की रचना युगल शतक से किसी एक पद का गायन होता है। युगल शतक में 100 पद हैं। फिर श्रीहरिव्यास देवाचार्य जी की रचना महावाणी से एक पद गाया जाता है। फिर आचार्यों की बधाइयां हंसवंश यश सागर व अन्य बधाई की पुस्तकों के पदों द्वारा गाई जाती हैं।
निबार्क संप्रदाय की समाज गायन में मुख्य रूप से सूहा विलावल, यमन कल्याण, श्याम कल्याण, देव गंधार, काफी, मल्हार, बिहाग, भूपाली, मालकौश, केदार, बहार, भीमपलासी, सोरठ, सिहानो, पीलू मारू, वृंदावनी सारंग, आसावरी, भैरवी, देश, भैरव, रामकली, चैती गौरी, धनाी, खमाज, वरवा, खट, वागेश्र्वरी, अडाना, विहागडा व दरवारी आदि रागों का प्रयोग किया जाता है। तालों में प्रमुख रूप से चौताल (ध्रुपद), चर्चरी, झप, तीन ताल, कहरवा, दादरा, रूपक, दीपचंदी आदि का प्रयोग होता है। समाज गायन में गाए जाने वाले पद का प्रस्तुतिकरण दो प्रकार की लय में किया जाता है। पद को विलंबित लय में शुरू करके द्रुत लय में ले जाते हैं।
निम्बार्क संप्रदाय में मुखिया व झेला का क्रम कब से चला आ रहा है, यह तो शोध का विष्य है किंतु निबार्क कोट में समाज गायन में मुखियाओं की परंपरा इस प्रकार रही है- श्रीरमन दास, गोपाल दास, गोकुल दास, पूरन दास, प्रेमदास, गोविंद दास, रूप किशोर दास, रसिक दास व वृंदावन बिहारी।
निम्बार्क कोट घराने की समाज गायन के वर्तमान मुखिया वृंदावन बिहारी के मुताबिक दंडक गायन इस घराने की विशेष शैली है। दंडक का अर्थ है दंड के समान लंबा। झप ताल में गाए जाने वाली इस शैली में कवित्त आदि छंदों की लंबी-लंबी पंक्तियों का प्रयोग होता है। यह निम्बार्क कोट के समाज गायन के अंतर्गत कार्तिक शुक्ल दशवीं व एकादशी को यहां गाया जाता है।
वृन्दावन बिहारी के मुताबिक समाज गायन की मूलधारा श्रद्धा व उपासना पर आधारित है। यह किसी राजा इत्यादि के सामने गाए जाने वाली मनोरंजन प्रधान गायकी नहीं है। उन्होंने कहा कि अमूमन समाज गायन के लिए राग के ज्ञान की नहीं अनुराग मय ध्यान की आवश्यकता है। वस्तुत: जिस समय एकाग्र मन से संत जन गाने लगते हैं तो सारा वातावरण ही दिव्य हो जाता है। समाज गायन ब्रज की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर है।