गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

श्री निम्बार्क आचार्य वृंद जयंती महोत्सव का 175वां समारोह यानी शतोत्तर हीरक जयंती महोत्सव की कुछ झलकियां

श्री निम्बार्क आचार्य वृंद जयंती महोत्सव का 175वां समारोह यानी शतोत्तर हीरक जयंती महोत्सव की कुछ झलकियां

175वें समारोह में कई बातें नई हुईं और पहली बार हुईं। अखंड संकीर्तन, 21 पंडितों द्वारा भागवत का सस्वर पाठ, श्री निम्बार्काचार्य श्रीजी महाराज का पदार्पण, महावाणी का सस्वर पाठ, निम्बार्काचार्य के द्वैताद्वैत दर्शन का अन्य आचार्यों के दर्शन से तुलनात्मक विवेचन पर सेमिनार विशेष रहे। निम्बार्क आचार्य चरित्र कथा, समाज गायन, रासलीला, ढांढ़ी लीला, अभिषेक, सवारी और भंडारा तो उत्सव की पहचान हैं ही।

शुरू से ही बात करें तो निमंत्रण पत्र ही दो फोल्ड वाला छपा, कई चित्र और विस्तृत विवरण के साथ। उत्सव चला भी 34 दिन। हालांकि सुनते हैं कि काफी पहले उत्सव दशहरे से ही शुरू हो जाता था, इस बार शरद पूर्णिमा के अगले दिन सुबह अखंड संकीर्तन के साथ शुरू हआ। कीर्तन तीन दिन चला, एक दिन राधे-श्याम, राधे-श्याम, श्याम-श्याम राधे-राधे, एक दिन सीताराम सीताराम और एक दिन हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे, हरे  राम हरे राम राम राम हरे हरे। 72 घंटे तक लगातार मंदिर में लगातार कुछ चलता रहा हो, मेरे होश में तो ऐसा पहली बार हुआ।
संकीर्तन खत्म होते ही अगले दिन से श्रीमद्भागवत की कथा शुरू हुई। बाबूजी का इरादा 108 पंडितों को पाठ पर बिठाने का था हालांकि अंतत: 21 पंडितों भागवत पाठ पर बैठे और गोपालजी ने कथा की। पाठ करने वाले पंडितों ने सस्वर पाठ किया और जब पाठ करते थे माहौल दिव्य बन जाता था। कथा के दूसरे ही दिन पंचमी को महाराज जी की जयंती मनाई गई, शाम को समाज गायन हुआ और अन्य पदों के साथ महाराज जी का प्रिय पद ‘सांचे श्री राधारमण, झूठो सब संसार’ भी गाया। भगवत रसिक देव जी का यह पद इस बार संयोग से बाबूजी ने मेरे आग्रह पर चतुर्दशी यानी निम्बार्क जयंती के एक दिन पहले फिर से समाज के समापन के समय गाया था।
द्वादशी को हरिव्यास देवाचार्य की जयंती के साथ ही निम्बार्क आचार्य चरित्र कथा, समाज गायन और रासलीला के दैनिक कार्यक्रम शुरु हुए। दीपावली को आज ‘दीवाली की निसि नीकी’ जैसे पद गाए गए, रासलीला में ठाकुरजी ने श्रीजी के साथ चौसर खेला। दूज के दिन मुझे समाज गायन में रहने का मौका मिला। पंचमी को दोपहर में अचानक इच्छा हुई तो उस दिन भी वृंदावन गए, समाज में होली के पद के समय पहुंच ग ए, रास में मणिखंब लीला हुई। छठ को वहीं रुके। छठ की शाम को चलसखी गायन हुआ और रात में पांडे लीला हुई। सप्तमी की सुबह वापस आए लेकिन सप्तमी दो दिन तक रही। पहली सप्तमी को राधा जन्मोत्सव मना।
सप्तमी को दोपहर में करीब एक बजे खबर मिली कि मौजूदा निम्बार्काचार्य श्री श्रीजी श्यामाशरण देवाचार्य जी शाम 5 बजे आधे घंटे के लिए मंदिर आएंगे। फिर से वृंदावन गए, महाराज जी पदार्पण के समय मैं मौजूद था। बहुत आनंद आया। गोपाष्टमी को ठाकुरजी  की जयंती के अलावा स्वयंभूराम देवाचार्य जी की जयंती मनाई गई। अगले दिन अक्षय नवमी को हंस व सनकादिकों की जयंती मनाई गई। देवउठनी एकादशी को माधवाचार्य जयंती मनी। त्रयोदशी की दोपहर एक बार फिर वृंदावन पहुंच गए। रात में माखनचोरी लीला हुई। चतुर्दशी की सुबह महावाणी के सस्वर गायन शैली में पाठ में हिस्सा लिया। बिल्कुल अलग ढंग का कोई कार्यक्रम देखा। मेरे लिए पहली बार था लेकिन बहुत अच्छा लगा। गायन शैली दिमाग में बस गई है। महावाणी जी की संगीतमय आरती पहली बार ही सुनी। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि इस दिन शाम को समाज गायन में सांचे श्री राधारमण का पुन: गायन हुआ। रात को गोदनावारी लीला हुई।
पूर्णिमा की सुबह आंगन-जगमोहन में पूरा फूल श्रृंगार अकेले ही किया, निम्बार्क जयंती पर सदा की तरह ठाकुरजी जगमोहन में विराजमान हुए। संयोग से इस बार मुझे निम्बार्क भगवान के आचार्य विग्रह का अभिषेक करने का अवसर मिला। समाजियों को विदाई में 500-1000 रुपए के साथ एक-एक कालीन व अन्य प्रसाद वितरित हुआ। समा की खीर के साथ कूटू के आटे के बने आलू के बंडे और सदाबहार पंचामृत का प्रसाद मिला। सवारी के लिए पत्ते व फूल रात को ही आ गए थे। काफी पत्ते रात में छांटकर रख लिए। गोपाल ने चार और बाकी आठ खंभे मैंने तैयार किए, दोनों डोलों की बाकी सजावट भी अधिकांश मैंने ही की। सवारी में नई बात ये रही कि इस बार रासबिहारी के डोले के लिए रिक्शे के स्थान पर छोटी ट्रॉली वाला ट्रैक्टर लाया गया था। सारी तैयारी थी लेकिन पता नहीं क्यों देर हुई और सवारी 5 बजे के बाद शुरू हो सकी। सवारी में ताशे, बैंड, अखाड़ों के निशान, रास बिहारी के डोले के साथ अंत में स्वामी जी का डोला चल रहा था। रास्ते में बनखंडी, राधारमणजी और सुदामा कुटी में एक रंगोली कलाकार ने भव्य रंगोली बनाई थी जिसकी याद अभी तक जेहन में बनी हुई है। सवारी रात करीब साढ़े 10 बजे मंदिर वापस लौटी।
25 नवंबर को दिन में सवारी के डोले को जगमोहन के मध्य में रखकर वैसी ही तस्वीर लेने की कोशिश की जो 75 साल पहले ली गई थी, हालांकि चित्र लेते समय केवल बाबूजी, मैं, गोपाल, अनन्य, विपुल व बबीता ही मौजूद थे। शाम को सेमिनार आरंभ हुआ। पहले दिन के गोविंद मठ के एक वक्ता मुझे बहुत भाए। रात को दानलीला के साथ रास बिहारियों की भी विदाई हुई। स्वामी अमीचंद जी पूरी तन्मयता से पिछले करीब 20 साल से मंदिर की रास परंपरा को निभा रहे हैं। सेमिनार अगले दिन भी दो सत्रों में सेमिनार चला, कुल 16 वक्ताओं ने अपना वक्तव्य दिया। मैंने सभी का वक्तव्य रिकॉर्ड किया। लल्लन भैया यानी अरुण कुमार शाद्वल ने शोधपरक लिखित वक्तव्य पढ़ा। सेमिनार खत्म होते ही मुझे वृंदावन से विदा होना पड़ा, इस बार अपने जीवन में पहली बार भंडारे पर वृंदावन में नहीं था। एक दिन पहले  भोग घर में छत से एक पत्थर खिसका और लड्‌डुओं पर जा गिरा लेकिन बाकी कोई दुर्घटना नहीं हुई। पूर्णाहूती भंडारे में कई वर्ष बाद काफी भीड़भाड़ थी। पूरा उत्सव निर्विघ्न संपन्न हुआ। उत्सव के दौरान पिछले कई वर्षों की तुलना में इस बार बाबूजी काफी सक्रिय दिखाई दिए।

























































































































































































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