आचार्य निम्बार्क
सनातन संस्कृति की आत्मा श्रीकृष्ण को उपास्य के रूप में स्थापित करने वाले निम्बार्काचार्य वैष्णवाचार्यों में प्राचीनतम माने जाते हैं। राधाकृष्ण की युगलोपासना को प्रतिष्ठापित करने वाले निम्बार्काचार्य का प्रादुर्भाव कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। भक्तों की मान्यतानुसार आचार्य निम्बार्क का आविर्भाव-काल द्वापरांत में कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ और परीक्षित पुत्र जनमेजय के समकालीन बताया जाता है। इनके पिता अरुण ऋषि की, श्रीमद्भागवत में परीक्षित की भागवतकथा वर्णन प्रसंग सहित अनेक स्थानों पर उपस्थिति को विशेष रूप से बतलाया गया है। हालांकि आधुनिक शोधकर्ता निम्बार्क के काल को विक्रम संवत की 5वीं सदी से 12वीं सदी के बीच सिद्ध करते हैं। संप्रदाय की मान्यतानुसार इन्हें भगवान के प्रमुख आयुध 'सुदर्शन" का अवतार माना जाता है। इनका जन्म वैदुर्यपत्तन (दक्षिण काशी) में हुआ था। इनके पिता अरुण मुनि और इनकी माता का नाम जयंती था। जन्म के समय इनका नाम नियमानंद रखा गया और बाल्यकाल में ही ये ब्रज में आकर बस गए। मान्यतानुसार अपने गुरु नारद की आज्ञा से नियमानंद ने गोवर्धन की तलहटी को अपनी साधना-स्थली बनाया।बचपन से ही यह बालक बडा चमत्कारी था। एक बार गोवर्धन स्थित इनके आश्रम में एक दिवाभोजी यति (केवल दिन में भोजन करने वाला संन्यासी) आया। स्वाभाविक रूप से शास्त्र-चर्चा हुई पर इसमें काफी समय व्यतीत हो गया और सूर्यास्त हो गया। यति बिना भोजन किये जाने लगा। तब बालक नियमानंद ने नीम के वृक्ष की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है, आप भोजन करके ही जाएं। लेकिन यति जैसे ही भोजन करके उठा तो देखा कि रात्रि के दो पहर बीत चुके थे। तभी से इस बालक का नाम 'निंबार्क", यानी निंब (नीम के पेड) पर अर्क (सूर्य) के दर्शन कराने वाला, हो गया।
निम्बार्काचार्य ने ब्रह्मसूत्र, उपनिष्द और गीता पर अपनी टीका लिखकर अपना समग्र दर्शन प्रस्तुत किया। इनकी यह टीका वेदांत पारिजात सौरभ (दसश्लोकी) के नाम से प्रसिद्ध है। इनका मत 'द्वैताद्वैत" या 'भेदाभेद" के नाम से जाना जाता है। आचार्य निम्बार्क के अनुसार जीव, जगत और ब्रह्म में वास्तविक रूप से भेदाभेद संबंध है। निंबार्क इन तीनों के अस्तित्व को उनके स्वभाव, गुण और अभिव्यक्ति के कारण भिन्न (प्रथक) मानते हैं तो तात्विक रूप से एक होने के कारण तीनों को अभिन्न मानते हैं। निम्बार्क के अनुसार उपास्य राधाकृष्ण ही पूर्ण ब्रह्म हैं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी सुविख्यात पुस्तक 'भारतीय दर्शन" में निंबार्क और उनके वेदांत दर्शन की चर्चा करते हुए लिखा है कि निम्बार्क की दृष्टि में भक्ति का तात्पर्य उपासना न होकर प्रेम अनुराग है। प्रभु सदा अपने अनुरक्त भक्त के हित साधन के लिए प्रस्तुत रहते हैं। भक्तियुक्त कर्म ही ब्रह्मज्ञान प्राप्ति का साधन है। सलेमाबाद (जिला अजमेर) के राधामाधव मंदिर, वृंदावन के निम्बार्क-कोट , नीमगांव (गोवर्धन) सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में निंबार्क जयंती विशेष समारोह पूर्वक मनाई जाती है।
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