कार्तिक शुक्ल दशमी
वंदना
श्रीहंसञ्च सनत्कुमार प्रभृतीम् वीणाधरं नारदं,
निम्बादित्यगुरुञ्च द्वादशगुरुन् श्री श्रीनिवासादिकान्।
वन्दे सुन्दरभट्टदेशिकमुखान् वस्विन्दुसंख्यायुतान्,
श्रीव्यासाध्दरिमध्यगाच्च परत: सर्वान्गुरुन्सादरम।। 1 ।।
हे निम्बार्क! दयानिधे गुणनिधे! हे भक्त चिन्तामणे!
हे आचार्यशिरोमणे! मुनिगणैरामृग्यपादाम्बुज!
हे सृष्टिस्थितिपालक! प्रभवन! हे नाथ! मायाधिप,
हे गोवर्धनकन्दरालय! विभो! मां पाहि सर्वेश्वर।। 2 ।।
शंखावतार पुरुशोत्मस्य यस्य ध्वनि शास्त् मचिन्त्य शक्ति।
यत्सस्पर्श मात्राच ध्रुव माप्त काम तम्श्री निवासभ्शनम् प्रपद्ये।। 3 ।।
जय जय श्री हित सहचरी भरी प्रेम रस रंग,
प्यारी प्रियतम के सदा रहति जु अनुदित संग।
जय जय श्री हरि व्यास जु रसीकन हित अवतार,
महावानी करि सबनिको उपदेश्यो सुख सार।।
आनन्द मानन्द करम् प्रसन्नम ज्ञानम् स्वरूपम् निज भाव युक्तम्।
योगीन्द्र मीड्यम भव रोग वैद्यम, श्री मद् गुरुम् नित्य महम् स्मरामि।।
भक्ति भक्त भगवन्त गुरु चतुर नाम वपु एक,
इनके पद वन्दन किये नाशात विघ्न अनेक।।
वान्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा सिन्धुभ्य एव च।
पतितानाम् पावनेभ्यो वैष्णवैभ्यो नमो नम:।।
निम्बभानु उद्योत जहं, भाव कमल परकास।
रस-पंचक मकरंद के, सेवक पद रज दास।। 1 ।।
भयो प्रकट जब निम्बरवि, गयो तिमिर अज्ञान।
नयो युगल लीला ललित, रस प्रगट्यो भुवि आन।। 2 ।।
आचारज वर अवतरे, निम्बग्राम सुख साज।
मन भायो सब जनन को, भयो बधायो आज।। 3 ।।
पुहुप बृष्टि सुरवर करें, प्रमुदित सब नर नार।
आज बधाई निम्बपुर, अरुण ऋषि दरबार।। 4 ।।
पद-1 बड़ा मंगल
दोहा
जै जै श्री गोपाल संत हित अवतरें। ब्रह्मा शेष महेश देव जै जै करें।।
मत्स्यादिक अवतार सबै इनते भये। सो सर्वेश्वर राय गोप वल्लभ भये।।
पद
भये वल्लभ गोप कुल के तिहिं जु सुन्दर वपु धरें।
धृष्ट कज्जल नील नीरज मेघ नहिं उपमा परें।।
चंचला द्युति पीत वस्तर वैजयन्ती उर धरे।
जै जै श्री गोपाल संत हित अवतरे।। 1 ।।
जै जै श्री गोपाल शिखि पिच्छ शिर धरैं।
मृग मद केसर खीर तिलक रोचन करैं।।
झषपति कुण्डल लोल कपोलन पर अरै।
अलक झलक रहि नील शील मधुकर हरै।।
हरें मधुकर गन्ध जिनके कंज खंजन दृग बनै।
अरुण अधर पै श्वेतमुक्ता चिबुक शोभ अन गनै।।
अहि भोग बाहु विसाल वलय हाथ पहुंची कर धनें।
जै जै श्री गोपाल शिखि पिच्छ शिर धरें।। 2 ।।
जै जै श्री गोपाल गले कौस्तुभ मणि।
श्री वत्स्यादिक हृदय गुंज मुक्ता मणि।।
चल दल पत्र सुढार उदर नाभी घनी।
अति सूक्ष्म कटि देश किंकिणी रब सनी।।
सनी रब ते चरण नूपुर अरुण वनत सुहावनै।
अंगूरी नखत की कान्ति मानो मेघ घन दश शशि सने।।
पाद ताल सुभ चिह्न चिह्नित संत जन मोहन मणि।
जै जै श्री गोपाल गले कौस्तुभ मणि।। 3 ।।
जै जै श्री गोपाल वृन्दावन राजहीं।
वाम अंग बृषभान सुता छबि छाजहीं।।
दिव्य सखिन के वृन्द रूप गुन वपु बनी।
तत सेवा फल रूप जुगल मूरति सनी।।
सनी मूरति जुगल की इत कृष्ण वामा भामिनी।
मेघ घन के कोर मानो थिर रही है दामिनी।।
दिव्य गुन रस रूप सागर नित्य मो मन साजहीं।
जै जै श्री गोपाल वृन्दावन राजहीं।। 4 ।।
पद-2
छोटा मंगल
नमो नमो श्री हंस गोपाल।
प्रगटे कार्तिक शुक्ल नौमि दिन रसिक जनन पर होय कृपाल।।
प्रथमहिं ब्रह्मा जू प्रति पारा सनकादिक कछु प्रश्नहि काज।
रसानन्द श्री विपिन महात्तम हमहि कहो प्रभु सब शिर ताज।।
गूढ़ तत्व कहिवे में आलस जान प्रगट भये परम दयाल।
जो जो प्रश्न कियो सनकादिक सो सबही कहयो रहसि रसाल।।
समाधान करि जानि आपनो दीक्षा दीन्हीं मन्त्र गोपाल।
रूप रसिक हिय हेतु पुरातन प्रचुर करन युगजन प्रतिपाल।।
मंगल मूरति नियमानंद।
मंगल युगल किसोर हंस वपु श्री सनकादिक आनंदकंद।।
मंगल श्री नारद मुनि मुनिवर, मंगल निम्ब दिवाकर चंद।
मंगल श्री ललितादि सखीगण, हंस-वंश सन्तन के वृंद।।
मंगल श्री वृंदावन जमुना, तट वंशीबट निकट अनंद।
मंगल नाम जपत जै श्री भट, कटत अनेक जनम के फंद।।
नमो नमो नारद मुनिराज।
विषियन प्रेमभक्ति उपदेशी, छल बल किए सबन के काज।।
जिनसों चित दे हित कीन्हों है, सो सब सुधरे साधु समाज।
(श्री) व्यास कृष्ण लीला रंग रांची, मिट गई लोक वेद की लाज।।
आज महामंगल भयो माई।
प्रगटे श्री निम्बारक स्वामी, आनंद कह्यो न जाई।।
ज्ञान वैराग्य भक्ति सबहिन को, दियो कृपा कर आई।
(श्री) प्रियासखी जन भये मन चीते, अभय निसान बजाई।।
नमो नमो जै श्री भट देव।
रसिकन अनन्य जुगल पद सेवी, जानत श्री वृंदावन भेव।।
(श्री) राधावर बिन आन न जानत, नाम रटत निशदिन यह टेव।
प्रेमरंग नागर सुख सागर श्री गुरुभक्ति शिरोमणि सेव।।
नमो नमो जै श्री हरिव्यास
नमो नमो श्री राधा माधव, राधा सर्वेश्वर सुखरास।।
नमो नमो जय श्री वृंदावन, यमुना पुलिन निकुंज निवास।
(श्री) रसिक गोविंद अभिराम श्यामघन नमो नमो रस रासविलास।।
पद-3
देव परम धर्मादि पर रूप परमेश्वर, ज्ञान विज्ञान वैराग्य मूलम्।
सकल जगदादि सनकादि विधिना सुवन, विघन मोचन त्रिविध ताप शूलम्।।
देव काम क्रोधादि मद-मोह मत्सर असुर, लोभ पाखण्ड तरुवर कुठारम्।
परस्पर प्रश्न रस कृष्ण शिष्यादि सुख, शमन दुख दवन मन निर्विकारम्।।
देव अखिल गुरुरूप गोतीत गोलोकगत, अक्षरातीत रस रसिक स्वादी।
मग्न भये भक्ति भागौत रत भक्त वपु, भाव-भाविक भरम छेदे अनादी।।
देव सन्त हित करन संशय हरन संहिता, शुद्ध सतधर्म निर्धारकारी।
धाम वृन्दाटवी वाम वर सहचरी, कुंज कलकेलि कौतिक अहारी।।
देव नित्य नैमित्य निर्गुण सगुण तत्ववित, सृष्ट सुविचार करि इष्टधारी।
शब्द परब्रह्मरत सुनत ब्रह्मा चकित, हंस उपदेश संशय निवारी।।
देव सत्य ते नित्यवर बारिधर धार चर, सुर धुनी शेष सु विचार करता।
धरि अनन्य टेक सु विवेक विधि जान मन, मननि मनमत्त उर भाव भरता।।
देव उग्र विग्रह प्रज्वलित ही अति अनल वत्त, तेज वल अतुल आनन्द राशी।
भक्तवत्सल विमल ललित ललितादि सुख, निगम आगम अगम रस-प्रकाशी।।
देव सम्प्रदा शुद्ध अविरुद्ध गतमनि अवनि, सरित वत सुभग हरि स्यन्द चालम्।
तासु मधि रमत हरिदास आसै अधिक, दास कैशोर उर-सर-मरालम्।।
पद-4 (महावाणी सहज सुख 41)
दोहा
तो सों कहा दुराव तू, हिय हित समझनि हारि।
न्याय कहत तोसों सबै, श्रीहरिप्रिया सहचारि।।
पद
कहा तोसों कहौं मो हिय हित की बात।
कहि नहिं आत ए सखी री कहत कंठ रुकि जात।।
निसिबासर लगियै रहै री मो उर एही टेक।
हौं हिलि प्रिया होइ जाउं कैं प्रिया हौं मिलि होइ रहौं एक।।
जब देखौं जब दीखहीं री सदा दृष्टि अनुकूल।
बरसत सरसतहीं रहै ज्यौं सूरज रसकौ मूल।।
निमिष न छबि नैंनान तें री न्यारी होय सकाय।
ज्यौं आंखिन में पूतरी त्यों रहत सदा सुखदाय।।
तोसों कहा दुराइये तूं हिय हित समझनिहारि।
न्याय कहत तोसों सबै श्रीहरिप्रिया निज सहचारि।।
पद-5
जै जै श्री राधारमण विराजैं।
निज लावण्य रूप निधि संग लिये,
कोटि काम छवि लाजैं।
कुंज-कुंज मिल विलसत हुलसत,
सेवत सहचरि संग समाजैं।
श्रीवृंदावन श्री हितु श्री हरिप्रिया,
चोज मनोजन काजैं।।
पद-6
सेवौं श्री राधारमण उदार।
जिन्ह श्री गोपाल दास जू सेव्यौ,
गोपाल रूप उर धार।
श्री हंसदास जू सेवत मानसी,
युगल रूप रस सार।
तिनकी कृपा श्री गोविंद बाल (जु दिये),
सिंहासन बैठार।।
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