कार्तिक शुक्ल अष्टमी
वंदना
श्रीहंसञ्च सनत्कुमार प्रभृतीम् वीणाधरं नारदं,
निम्बादित्यगुरुञ्च द्वादशगुरुन् श्री श्रीनिवासादिकान्।
वन्दे सुन्दरभट्टदेशिकमुखान् वस्विन्दुसंख्यायुतान्,
श्रीव्यासाध्दरिमध्यगाच्च परत: सर्वान्गुरुन्सादरम।। 1 ।।
हे निम्बार्क! दयानिधे गुणनिधे! हे भक्त चिन्तामणे!
हे आचार्यशिरोमणे! मुनिगणैरामृग्यपादाम्बुज!
हे सृष्टिस्थितिपालक! प्रभवन! हे नाथ! मायाधिप,
हे गोवर्धनकन्दरालय! विभो! मां पाहि सर्वेश्वर।। 2 ।।
शंखावतार पुरुशोत्मस्य यस्य ध्वनि शास्त् मचिन्त्य शक्ति।
यत्सस्पर्श मात्राच ध्रुव माप्त काम तम्श्री निवासभ्शनम् प्रपद्ये।। 3 ।।
जय जय श्री हित सहचरी भरी प्रेम रस रंग,
प्यारी प्रियतम के सदा रहति जु अनुदित संग।
जय जय श्री हरि व्यास जु रसीकन हित अवतार,
महावानी करि सबनिको उपदेश्यो सुख सार।।
आनन्द मानन्द करम् प्रसन्नम ज्ञानम् स्वरूपम् निज भाव युक्तम्।
योगीन्द्र मीड्यम भव रोग वैद्यम, श्री मद् गुरुम् नित्य महम् स्मरामि।।
भक्ति भक्त भगवन्त गुरु चतुर नाम वपु एक,
इनके पद वन्दन किये नाशात विघ्न अनेक।।
वान्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा सिन्धुभ्य एव च।
पतितानाम् पावनेभ्यो वैष्णवैभ्यो नमो नम:।।
निम्बभानु उद्योत जहं, भाव कमल परकास।
रस-पंचक मकरंद के, सेवक पद रज दास।। 1 ।।
भयो प्रकट जब निम्बरवि, गयो तिमिर अज्ञान।
नयो युगल लीला ललित, रस प्रगट्यो भुवि आन।। 2 ।।
आचारज वर अवतरे, निम्बग्राम सुख साज।
मन भायो सब जनन को, भयो बधायो आज।। 3 ।।
पुहुप बृष्टि सुरवर करें, प्रमुदित सब नर नार।
आज बधाई निम्बपुर, अरुण ऋषि दरबार।। 4 ।।
पद-1 बड़ा मंगल
जै जै श्री निम्बार्क आचारज अवतरे।
युगल सु आज्ञा पाय सुदर्शन वपु धरे।।
कुमति मति पाखंड देखि हरि यों कही।
थापो मत अविरोध तुम्हें आज्ञा दई।।
दई आज्ञा पाय हरिकर-चक्र वपु धारण कियो।
सनकादि नारद हार्द हिय धरि धरनितल पावन कियो।।
तैलंग द्विजवर रूप धरि अविरोध मत पुनि अनुसरे।
जै जै श्रीनिम्बार्क आचारज अवतरे।। 1 ।।
जै जै श्री निम्बार्क आचारज गाइये।
भवनिधि पार अपार पार पर पाइये।।
औदुम्बर श्रीनिवास गौरमुख जे भये।
जिन पदरजकूं पाय धाय प्रभु पद गहे।।
गहे पद प्रभु के जु नित प्रति दिव्य बपु ह्वै सेवहीं।
युगलपद मकरंद रज मधु मधुप ज्यों अब लेवहीं।।
आदि मघ्य अवसान जिनको वेद भेद न पाइये।
जै जै निम्बार्क आचारज गाइये।। 2 ।।
जै जै श्रीनिम्बार्क आचार्य शिर भूषणा।
भक्ति ज्ञान की खान आन मग दूषणा।।
जे नर आवें शरण छाप कर जे धरै।
जन्म जन्म के पाप ताप त्रय परहरे।।
परहरै त्रय ताप तिनके कर्म धर्म बिनाशहीं।
सकल मुनिगण निगम कर धर व्यास वेदन में कही।।
तापादि पंचक धारि उर में जगत ते पुनि रूपणा।
जै जै श्रीनिम्बार्क आचार्य शिर भूषणा।। 3 ।।
जै जै श्रीनिम्बार्क गोवर्धन राजहीं।
नित लीला रस पान आन सुख त्याजहीं।।
श्रीवृंदावन मध्य रहस्य रस परचरें।
निम्बग्राम निज धाम काम पूरण करें।।
करें पूरण काम सबके शरण जे जन आवहीं।
श्रीनिम्बभानु कृपालु को सुखराम गुणगण गावहीं।।
धरे युग-युग रूप नामा वैष्णवन सुख साजहीं।
जै जै श्रीनिम्बार्क गोवर्धन राजहीं।। 4 ।।
पद-2
छोटा मंगल
मंगल मूरति नियमानंद।
मंगल युगल किसोर हंस वपु श्री सनकादिक आनंदकंद।।
मंगल श्री नारद मुनि मुनिवर, मंगल निम्ब दिवाकर चंद।
मंगल श्री ललितादि सखीगण, हंस-वंश सन्तन के वृंद।।
मंगल श्री वृंदावन जमुना, तट वंशीबट निकट अनंद।
मंगल नाम जपत जै श्री भट, कटत अनेक जनम के फंद।।
नमो नमो नारद मुनिराज।
विषियन प्रेमभक्ति उपदेशी, छल बल किए सबन के काज।।
जिनसों चित दे हित कीन्हों है, सो सब सुधरे साधु समाज।
(श्री) व्यास कृष्ण लीला रंग रांची, मिट गई लोक वेद की लाज।।
आज महामंगल भयो माई।
प्रगटे श्री निम्बारक स्वामी, आनंद कह्यो न जाई।।
ज्ञान वैराग्य भक्ति सबहिन को, दियो कृपा कर आई।
(श्री) प्रियासखी जन भये मन चीते, अभय निसान बजाई।।
नमो नमो जै श्री भट देव।
रसिकन अनन्य जुगल पद सेवी, जानत श्री वृंदावन भेव।।
(श्री) राधावर बिन आन न जानत, नाम रटत निशदिन यह टेव।
प्रेमरंग नागर सुख सागर श्री गुरुभक्ति शिरोमणि सेव।।
नमो नमो जै श्री हरिव्यास
नमो नमो श्री राधा माधव, राधा सर्वेश्वर सुखरास।।
नमो नमो जय श्री वृंदावन, यमुना पुलिन निकुंज निवास।
(श्री) रसिक गोविंद अभिराम श्यामघन नमो नमो रस रासविलास।।
पद-3
दोहा
बजत बधाई सोहनी श्रीहरिव्यास के धाम।
कार्तिक शुक्ला अष्टमी मंगलमय अभिराम।।
आचारजवर प्रगट भये श्रीमत् शोभूराम।
देवन सुमन सुबरषहिं जनमन पूरणकाम।।
पद
जै जै श्रीशोभूराम देव अवनि पर वपु धरें।
अद्भुत रूप अनूप निरखि छबि मन हरें।।
सकल गुनन के खान महा रसनिधि भरें।
श्रीवृन्दावन धाम विभव दम्पति वरें।।
वरें वृन्दाविपिन दंपति कहत नहिं उपमा परें।
जहां दिव्य कंचन जटित अवनी विविध मनिगण सोजरें।।
सुभग जमुना कंच मधुकर मत्त गुंजन रस अरें।
जै जै श्रीशोभूराम देव अविनि पर वपु धरें।। 1 ।।
जै जै श्रीशोभूराम देव सेवत रसनिधि महा।
शीतल मंद सुगन्ध समीर त्रिविध जहां।
मन्दिर परम रसाल मणिन मंडप जहां।
राजत जुगल किशोर सकल सुखनिधि तहां।
तहां सुन्दर रुप अद्भुत गौर श्यामल छवि महा।
झलक भूषण बसन अंगनि अंस मुसकनि लहा।
सौंज लैं सखि समित सेवत रस उदधि वरणों कहा।
जै जै श्रीशोभूरामदेव सेवत रसनिधि महा।। 2 ।।
जै जै श्रीशोभूरामदेव हंसकुल भूषणा।
लीला रसमाधुर्य रसिक रस पूषणा।।
श्रीवृन्दावन कुंज निकुंज महल धनी।
रंग अली अनवर्तिनि सेवत श्रीरसिकमनी।।
मनी सहचरि प्राण जीवन नवल जुगल किशोर जू।
विलसही रस बिबस बहुविधि उमग सिन्धु हिलोर जूू।।
सखि सहेलिन लाड़ लड़ावत परम प्रेम अदूषणा।
जै जै शोभूराम देव हंस कुल भूषणा।। 3 ।।
जै जै श्रीशोभूराम देव रसिक रसराज हैं।
हंस वंस अवतंस सुखद जनकाज हैं।।
नित्य निकुंज निवास श्रीशोभा सहचरी।
सेवत नित्य बिहार सुदम्पति रस भरी।।
भरी सब सुख रूप शोभा सिन्धु प्रेम न कहि परै।
पलहि पल नव जुगल लाड़त निरखि छवि सुख मन हरै।।
हितु सखी श्रीहरिप्रिया अलि गौमती रसराज हैं।
जै जै श्रीशोभूराम देव रसिक रसराज हैं।। 4 ।।
पद-4
नमो नमो जय शोभू देव।
श्रीवन राज विभव रस दायक लायक रसिक जुगल पद सेव।। 1 ।।
कार्तिक शुक्ल अष्टमी शुभ दिन प्रगटे नवनिकुंज रस भेव।
अली गौमती हरिप्रिया सहचरि रसिक जनन के जीवन एव।। 2 ।।
जै जै शोभूराम देव जू
रसिक अनन्यन के सुखदायक जानत नित्यनिकुंज की भेव।। 1 ।।
कार्तिक मास पुनीत अष्टमी शुक्ल पक्ष प्रगटे हरि एव।
अली गौमती हरिप्रिया सहचरि श्यामा श्याम जुगल पद सेव।। 2 ।।
बधाई
राम-ईमन
प्रगटे आज श्रीशोभूराम।
श्री वृन्दावन नित्य निकुंज में सखी श्रीशोभू नाम।
अज्ञा लै भूपर प्रगटी सब सुख शोभा धाम।।
कार्तिक शुक्ल अष्टमी सुन्दर वार नक्षत्र ललाम।
दास गोपाल रसिक सुख दायक चिरजीवो अभिराम।।
पद-4 (युगल शतक-95)
दोहा
भागवती जसुमति अति, भई प्रफुल्लित लखि लाल।
गोकुल मंगल आज सखि, बाढ्यो विसद विसाल।।
पद
गोकुल मंगल आज बधाई।
रानी जसुमति के प्रकटे हैं, सुंदर कुंवरि कन्हाई।।
गोरी ओपी थार लिये कर, रवि छवि दोषि लजाई।
गावत धावत अति छवि पावति, सूरति लगति सुहाई।।
देखि देखि मुख स्यामसुंदर कौ, अंग अंगनि सचुपाई।
भागवती जसुमति रानी अति, सुत जायौ सुखदाई।।
निरतत कीरति मुखिया निज मुख, कहि कहि बहुत बड़ाई।
ब्रजरानी सनमानी तैसैं, जो जैैसैं मनभाई।।
नंदसदन में दूध दही की, मची कीच अधिकाई।
गोपी गोप ग्वालगन अनगिन, आनंद मगन महाई।।
भाग सराहत ब्रजरानी के, भाषत भूप भलाई।
कहत आज हम ब्रजवासिन की, सकल आस पुरवाई।।
जग बंदन नंदनंदन जायौ, सुख छायौ ब्रजआई।
जै श्रीभट्ट रसिक भक्तिन मन, भई महा मुदिताई।।
पद-5 (महावाणी-उत्साह सुख-110)
दोहा
कर कंचन की थार धरि, भरि पूजा कौ साज।
बजट बधाई महल में, आई सखी-समाज।।
पद
महल में बाजत आज बधाई, बनि बनि सखी सब आई।
बरन बरन सारी तन पहिरें, लागत परम सुहाई।।
सकल सौंज-भरि-हरि थारिन में कर कंजनि धरि लाई।
प्रानप्रियन को पूजि परस्पर करत केलि मन भाई।।
सुरत समुद्र झकोरी गोरी अंग-संगिनि सरसाई।
लहलहाति रंगभीनी भामिनि दामिनि-सी दरसाई।।
उमंगि उमंगि अनरागनी रागनि तान तरंग बढ़ाई।
ना ना न न न न न न न न ना ना अति अद्भुत छबि छाई।।
सुनि सुनि परम प्रसंसत दोऊ आदर निकट बुलाई।
श्री हरिप्रिया सकल जुबजन की मन अभिलाष पुराई।।
पद-6 (महावाणी-उत्साह सुख-111)
दोहा
प्रान वारि बलिहारी लै, सुधि बुधि सकल बिसारि।
बदन सुधानिधि निरखि कें, फूली तन सहचारि।।
पद
सहचरि फूली अंग न माई।
बदन-सुधानिधि निरखि स्याम कौ सब मिलि मोद बढ़ाई।।
बारत प्रान लेत बलिहारी तन मन सुधि बिसराई।
गावत गीत पुनीत महल में धुनि अम्बर छिति छाई।।
भरि भरि मोतिन थार परस्पर डारत अति छबि पाई।
परम प्रेम रस बोरी गोरी निरखत नैंन सिराई।।
छूटत पट आभूषण टूटत सुख लूटत अधिकाई।
जै जै जै रब करि करि बोलत डोलत डोल सुहाई।।
भादों-कृष्ण-रोहिनी आठें अर्धनिसा जब आई।
प्रगटे श्रीहरिप्रिया प्रान धन भई सबन मनभाई।।
पद-7 (महावाणी-उत्साह सुख-112)
दोहा
देहू हमें मन मानती, तोसी त्रिभुवन नाहिं।
नवल लाल कें सोहिलें, हम आईं सब चाहिं।।
पद
लालजू कें सोहिलें हम आईं सब चाहिं।
देहू बधाई मनकी मानी जाकों देखि सिहाहिं।।
भाग सुहागनि भरी सहचरी तोसी त्रिभुवन नाहिं।
श्री हरिप्रिया प्रानधन जीवनि सदा रहैं उर माहिं।।
पद-8 (महावाणी-उत्साह सुख-113)
दोहा
करहुं अलंकृत महल कों, महामहोत्सव पाय।
बरषगांठ बिलसाइये, सब मिलि मंगल गाय।।
पद
बरषगांठि मोहन की, सब मिलि मंगल गावौ।
रंगमहल के राय आंगन में मोतिन चौक पुरावौ।।
द्वार-द्वार प्रति धुजा पताका बंदनमाल बंनावौ।
सींकनि सहित सांथिया रचि रचि बिच बिच लूम लगावौ।।
हरे पाकती कदली रोपौ पटह निसान बजावौ।
यथारीति अन्हवाय ललनकों पीताम्बर पहिरावौ।।
रतनजटित कंचन-सिंहासन पर दम्पति पधरावौ।
तिलक रचाय रुचिर रोरी के ऊपर अछत चढ़ावौ।।
स्वस्तिवाचिनी अलियनिसौं मिलि विमली वेद पढ़ावौ।
सुुनि सुनि बानी उनके मुखकी पुनि पुनि हिये सिहावौ।।
सब मंगल कौ मूल महोत्सव प्रति भादों प्रमुदावौ।
श्रीहरिप्रिया प्रानप्रीतम कों नव नव नेह लड़ावौ।।
पद-9 (महावाणी-उत्साह सुख-114)
दोहा
मानहुं परसन प्रेमनिधि, उमंगि सलिता पांति।
बजत बधाई श्रवन सुनि, अली चली भली भांति।।
पद
बजत बधाई आजु भली री।
छिति अम्बर दिसि छाय रही धुनि सुनि सुख होत अली री।।
कर लियें थार सकल जुबतीजन सजि सिंगार चली री।
गावत गीत पुुनीत रीति सों सोहत कुंज-गली री।।
आनन्दसिन्धु बढ्यौ अंग अंग में बाढ़ी रंगरली री।
प्रीतम उदै प्रसन्न होत हैं जैसे कुमुदकली री।।
ठौर ठौर मंगलमय ओपी रोपी कल कदली री।
मंजुलमुक्ता चौक पुरावे थरपित कलस थली री।।
पहुंची आय रायआंगन में ज्यों सुखसलित ढली री।
श्रीहरिप्रिया प्रेमनिधि परसन इत उत डग न टली री।।
पद-10 (महावाणी-उत्साह सुख-115)
दोहा
जित देखौं तितहीं तितैं, दूनी दुति सब ठौर।
मुख प्रसन्न लखि लालकौ, भई ओप कछु और।।
पद
आजु कछु औरें ओप भई।
जित देखौं तितहीं तित दीखत मंगल मोद मई।।
जस धारा नीकी महिमाबलि दिसि बिदिसान छई।
आनन्द के आनन्द उदै भयो दूनी दमक दई।।
बनबेली बिमली अनुकूली फूली फूल नई।
श्रीहरिप्रिया प्रसन्न बदन लखि तन मन सूल गई।।
पद-11
जै जै श्री राधारमण विराजैं।
निज लावण्य रूप निधि संग लिये,
कोटि काम छवि लाजैं।
कुंज-कुंज मिल विलसत हुलसत,
सेवत सहचरि संग समाजैं।
श्रीवृंदावन श्री हितु श्री हरिप्रिया,
चोज मनोजन काजैं।।
पद-12
सेवौं श्री राधारमण उदार।
जिन्ह श्री गोपाल दास जू सेव्यौ,
गोपाल रूप उर धार।
श्री हंसदास जू सेवत मानसी,
युगल रूप रस सार।
तिनकी कृपा श्री गोविंद बाल (जु दिये),
सिंहासन बैठार।।
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